Monday, 20 April 2020


" सो जाने दो "

थक गया है राही, उसे सो जाने दो 
अब चलना दुष्कर है उसे सो जाने दो। 

कदम दर कदम काँटों से झुलसा है वो ,
थोड़ा सुकून आ जाये , उसे सो जाने दो। 

आँखों में आस लिए , झपकी नहीं है पलके 
आँख न भर आए , उसे सो जाने दो। 

रास्ते की आंधी से , सन गया है तन उसका 
ज़रा तूफान थम जाये , उसे सो जाने दो। 

मंज़िल की चाह में बहुत दूर तक चलता रहा ,
अभी भी सफर है बाकी , उसे सो जाने दो। 

ऐसा नहीं कि , होंसला पस्त  हो गया है 
थोड़ा मन उदास है,  उसे सो जाने दो। 

दुनिया के हर रंग से वाक़िफ़ हो चुका है वो 
खुद बेरंग न हो जाए, उसे सो जाने दो।  

सपने उसके सफर में पीछे खो गए हैं ,
नया सपने सज जाये उसे सो जाने दो। 

मंज़िल तक आते आते शायद सांस टूट जाये 
अभी उसमे साँसे हैं , उसे सो जाने दो।  

कुछ नहीं माँगा कभी , 
सफर में कारवां से। 
राही की फरियाद है 
उसे सो जाने दो....... सो जाने दो .... 

- डॉ पंकज वर्मा 


"नज़र "



तेरी नज़रों के नूर को 
नज़र करने से डरता हूँ। ... 

डरता हूँ ......... 
कहीं झुक के कल कल 
बह  न जाए, 
ये झील सी नज़रें 
हया के नीर से ।

डरता हूँ ........
चंदा की चांदनी के 
आगोश में समाकर, 
जैसे सागर,  होश खो 
अपनी सीमाएं भूल जाता है ।
कहीं मैं भी..........
तेरी आँखों के उजाले के 
आगोश में समाकर ,
अपनी मर्यादा भूल न जाऊं ।

डरता हूँ .......
तेरी पलकों की चिलमन 
के घने साये में 
कहीं मैं खुद ही नज़रबंद न हो जाऊं 
कहीं भूल न जाऊं , 
कि तेरी आँखों से अलग इक दुनिया भी है , 
जिसका मैं हिस्सा हूँ 
कभी पतझड़ कभी सावन सा 
जीवन का किस्सा हूँ ।

नादाँ सा रही हूँ, 
मंज़िल अभी दूर हैं, 
खुद ही भटक जाऊं राह 
तो मंज़िल का क्या कसूर है ।

ऐ नूर .....
ज़रा, नैनो का नूर दे दे ,
तेरे नूर को इन नैनो का नूर बना लूंगा ।
जब जब नज़रें झुकेंगी, 
तुझे नज़र कर लूंगा .....
तुझे नज़र कर लूंगा ......
तुझे नज़र कर लूंगा.....

                                                                                                                -डॉ पंकज वर्मा 

Monday, 5 September 2016

"आतंक और इंसा " written on France terror attack.

 " आतंक और इंसा "

   कुचलकर यूँ इंसा को क्या हासिल कर लोगे,
 किसे दोजख दोगे,
किसको जन्नत दोगे।

अब धमाकों से जी नहीं भरता
कत्ल-ए-आम होता है बेरहम ,
बदन छलनी छलनी हैं
दिल जैसे गए हैं सहम ।



 
डर से भी बढ़कर कुछ है
जो घर कर गया है घरों में ,
मेरा आशियाँ न महफूज़ है ,
न मस्जिद में, न मंदिरों में।

                                                                            




                                                                                       आतंक का ये चेहरा
  बेनकाब होकर भी
बेहिसाब जुटा है
दरिंदगी फ़ैलाने में,
सत्ताएँ क्यों चुपचाप हैं
थोड़ा पैसा देकर, इंसान
की कीमत चुकाने में ।

 



दम घुटता है कैद मन की दीवारों में,
कैसे कन्धा दूँ
अपनों की लाश को
कैसे आसूं पोछु,
सिसकती हुई मज़ारों में।

ये सिलसिला न जाने कब थमेगा,
पता नहीं यूँ कौनसा मकसद मिलेगा ।
आज़ादी गर छीनोगे जीने की हमसे
न ज़मीं नसीब होगी,
न आसमाँ ही मिलेगा।।

                                                                      ....…......................डॉ पंकज वर्मा





Friday, 20 February 2015

"JEEVAN SATYA KI TALASH": "इंसानियत का क़त्ल " Its a tribute to all the child...

"JEEVAN SATYA KI TALASH": "इंसानियत का क़त्ल " Its a tribute to all the child...: "इंसानियत का क़त्ल " मैं पेशावर का स्कूल बोल रहा हूँ दिल में हैं जो दफ्न, वो राज़ खोल रहा हूँ हँसता खेलता मेरा भी गलीच...

Tuesday, 10 February 2015

"इंसानियत का क़त्ल " Its a tribute to all the children who succumbed to death in Peshawar due to terrorist attack. Its a expression of school in my language and emotions what school has felt at that time and after attack. Please read and pray for children.



"इंसानियत का क़त्ल "

मैं पेशावर का स्कूल बोल रहा हूँ
दिल में हैं जो दफ्न, वो राज़ खोल रहा हूँ
हँसता खेलता मेरा भी गलीचा था
नन्हे नन्हे फूलों का बगीचा था
  
 हर सुबह मुस्काती थी मेरी छाती  
मासूम से क़दमों की,
 जब आहट आती
वो मुझे ओढ़ लेते थे
मैं उन्हें पनाह देता था
गूंजा करता था तरह तरह की आवाज़ों से
 
               कहीं क्लासरूम की तालीम
                कहीं संगीत की आवाज़  
                कभी खेलते खेलते मिटटी में
                मुझसे लिपटने की आवाज़

गुरूर था मुझे अपने आप पर
जब बच्चे , माँ बाप को छोड़
मुझसे मिलने आते थे हर रोज़
और जला करती थी, आस पास की इमारतें
मेरे बुलंद भविष्य से

  पर आज वो गुरूर टूट गया है
जैसे मेरा खुद मुझसे रूठ गया है
वो क़यामत का दिन की क्या कहें
पल में हर रिश्ता छूट गया है

याद है मुझे वो क़यामत का दिन
दरिंदों की शैतानी, शरारत का दिन
इंसानियत की जलती आंच का दिन
हैवानियत के गंदे नाच का दिन

उस दिन भी सुबह की किरणे
मेरे आँगन में  आई थी
पर साथ उसके चुपके से, शैतानी परछाई थी

इल्म नहीं था मुझे शैतानी इरादों का
सारी हदें तोड़ती पशुता की हदों का

मेरे बच्चे मौत के खतरे से मरहूम
इम्तिहान से ही डरे हुए
परीक्षा खाने में कुछ अलफ़ाज़ अपनी
कलम से कागज़ पर उतार रहे थे

कहीं दूसरी कक्षा में बच्चे
सुनहरे भविष्य की चाहत लिए
नई तालीम हांसिल कर रहे थे
कहीं मंज़र था मस्ती भरा , थोड़ा दुःख भरा
की कुछ मेरे बाशिंदे मुझसे विदा ले रहे थे
और बीते सालो की यादों में मदहोश हो झूम रहे थे
और फेयरवेल मना रहे थे

हर कोई मगन था अपनी ही दुनिया में
इस ख्याल से बेखबर की
किसी के इंतकाम की आग
आज इस तालीम खाने की
कब्रिस्तान में बदलने वाली है
                                          देखते ही देखते वो काली परछाई
सारे स्कूल पे छा गयी
आतंक के साये में मेरी
हर ईंट समां गयी

कैसी शैतानी सोच लिए
बिन बोले गोलियां लिए
लगा कर कतार बच्चो की
कतरे कतरे को छलनी किये
                                      
                                            इंसानी भेष में हैवान को
पहली देखा था
मासूमों पे गोलियां दागते हाथों को
पहली बार देखा था

पहली बार देखी थी
इतने बच्चो की तड़पती लाश
बेबस मानवता को सोते हुए
                                         पहली बार  देखा था
पहली बार देखा था
इंतकाम की आग में
जलते हुए मासूमों को
वो कहते थे की तालिबान
घर उजाड़ा है तुमने हमारा
आज हम भी
हर घर का चिराग बुझाकर
इंतकाम की आग बुझाएंगे

पर ये आग नहीं बुझ सकती
न ही बुझ सकता है मेरा
सुलगता सीना , जो उस दिन जला था

वो चीखें , वो ज़िंदगी की गुहार
वो निर्मम गोलियों की बौछार
मेरी बेबसी कि, मैं चुप खड़ा देखता रहा
और मुझे लहू लुहान कर गयी
वो तड़पती , खून की फुहार

इतनो लाशों का बोझ लिए
कैसे  खुद को करूँ बर्दाश्त
मेरी रूह तो मर गयी
मेरे बच्चो के साथ
अब बस ये खूनी जिस्म खड़ा है
जलियों वाले बाग़ की तरह
        दरिंदगी हैवानियत  की निशानी  बनकर

गिरा दो मुझे भी की
ये नासूर लिए मैं खड़ा नहीं रह सकता
सदियों तक इतिहास का साक्षी बनकर
मेरा कोई नामोनिशान मत छोड़ना ताकि
भूल से भी वो दरिंदगी किसी के ज़हन में न रहे

गुज़ारिश है की यहाँ कब्रिस्तान
नहीं बगीचा बनाना
नन्हे नन्हे फूलों को फिर से
खिलता देखना है मुझे
मेरी मिटटी को लाल नही
हरा भरा देखना है मुझे
                                                                                                                       ----- डॉ पंकज वर्मा

Saturday, 22 March 2014

वो जो मर्द कहते हैं खुदको

        "वो जो मर्द  कहते हैं खुदको"


                     वो जो मर्द  कहते हैं खुदको ,
                     औरत की कोख से जन्मे हैं
                     वो जो मर्द कहते हैं खुदको
                    आज जानवरों से भी निकम्मे हैं
 
दफन हो जाती है ज़िंदगी इक इक
सपनो को दामन में पिरोते पिरोते ,
वो जो मर्द कहते हैं खुदको ,

दामन को दामिनी बना सड़क पे छोड़ते

                           उम्र भर माँ के हाथ जिन ,
बेटों का जीवन सवारतें हैं ,

वो जो मर्द कहते हैं खुदको ,

किसी माँ की बेटी की  खाल उतारते हैं


                                 उम्र भर रक्षा का वादा कर
                     करोड़ों हाथ राखी बंधवाते हैं
                     वो जो मर्द कहते हैं खुदको
                     उन्ही हाथों से बहनों को
तबाह कर ज़िंदा जलाते हैं


चल नहीं सकते
एक कदम भी

          औरत के सहारे के बिना
        वो जो मर्द कहते हैं खुदको
                                 उसे बेबस बेसहारा बनाते हैं


                    ऐसे हाल में जब हम ,
          नारी से अभिशापित हो जाएंगे ,

          वो जो मर्द कहते हैं खुदको
          खुद अपनी ही अर्थी उठाएंगे




शर्म हया के पर्दे त्याग जब,
जननी ज्वाला बन जाएगी
वो जो  मर्द कहते हैं खुदको, उनकी
मर्दानगी ख़ाक में मिल जाएगी।

 

                    इज़ज़त गर  चाहते हो तो
                    इज़ज़त सम्मान  देना सीखो ,
                    वो जो मर्द कहते हैं खुदको
                    नारी को स्वाभिमान देना सीखो।
                       

                                                                                      .... डॉ पंकज वर्मा