Tuesday 10 February 2015

"इंसानियत का क़त्ल " Its a tribute to all the children who succumbed to death in Peshawar due to terrorist attack. Its a expression of school in my language and emotions what school has felt at that time and after attack. Please read and pray for children.



"इंसानियत का क़त्ल "

मैं पेशावर का स्कूल बोल रहा हूँ
दिल में हैं जो दफ्न, वो राज़ खोल रहा हूँ
हँसता खेलता मेरा भी गलीचा था
नन्हे नन्हे फूलों का बगीचा था
  
 हर सुबह मुस्काती थी मेरी छाती  
मासूम से क़दमों की,
 जब आहट आती
वो मुझे ओढ़ लेते थे
मैं उन्हें पनाह देता था
गूंजा करता था तरह तरह की आवाज़ों से
 
               कहीं क्लासरूम की तालीम
                कहीं संगीत की आवाज़  
                कभी खेलते खेलते मिटटी में
                मुझसे लिपटने की आवाज़

गुरूर था मुझे अपने आप पर
जब बच्चे , माँ बाप को छोड़
मुझसे मिलने आते थे हर रोज़
और जला करती थी, आस पास की इमारतें
मेरे बुलंद भविष्य से

  पर आज वो गुरूर टूट गया है
जैसे मेरा खुद मुझसे रूठ गया है
वो क़यामत का दिन की क्या कहें
पल में हर रिश्ता छूट गया है

याद है मुझे वो क़यामत का दिन
दरिंदों की शैतानी, शरारत का दिन
इंसानियत की जलती आंच का दिन
हैवानियत के गंदे नाच का दिन

उस दिन भी सुबह की किरणे
मेरे आँगन में  आई थी
पर साथ उसके चुपके से, शैतानी परछाई थी

इल्म नहीं था मुझे शैतानी इरादों का
सारी हदें तोड़ती पशुता की हदों का

मेरे बच्चे मौत के खतरे से मरहूम
इम्तिहान से ही डरे हुए
परीक्षा खाने में कुछ अलफ़ाज़ अपनी
कलम से कागज़ पर उतार रहे थे

कहीं दूसरी कक्षा में बच्चे
सुनहरे भविष्य की चाहत लिए
नई तालीम हांसिल कर रहे थे
कहीं मंज़र था मस्ती भरा , थोड़ा दुःख भरा
की कुछ मेरे बाशिंदे मुझसे विदा ले रहे थे
और बीते सालो की यादों में मदहोश हो झूम रहे थे
और फेयरवेल मना रहे थे

हर कोई मगन था अपनी ही दुनिया में
इस ख्याल से बेखबर की
किसी के इंतकाम की आग
आज इस तालीम खाने की
कब्रिस्तान में बदलने वाली है
                                          देखते ही देखते वो काली परछाई
सारे स्कूल पे छा गयी
आतंक के साये में मेरी
हर ईंट समां गयी

कैसी शैतानी सोच लिए
बिन बोले गोलियां लिए
लगा कर कतार बच्चो की
कतरे कतरे को छलनी किये
                                      
                                            इंसानी भेष में हैवान को
पहली देखा था
मासूमों पे गोलियां दागते हाथों को
पहली बार देखा था

पहली बार देखी थी
इतने बच्चो की तड़पती लाश
बेबस मानवता को सोते हुए
                                         पहली बार  देखा था
पहली बार देखा था
इंतकाम की आग में
जलते हुए मासूमों को
वो कहते थे की तालिबान
घर उजाड़ा है तुमने हमारा
आज हम भी
हर घर का चिराग बुझाकर
इंतकाम की आग बुझाएंगे

पर ये आग नहीं बुझ सकती
न ही बुझ सकता है मेरा
सुलगता सीना , जो उस दिन जला था

वो चीखें , वो ज़िंदगी की गुहार
वो निर्मम गोलियों की बौछार
मेरी बेबसी कि, मैं चुप खड़ा देखता रहा
और मुझे लहू लुहान कर गयी
वो तड़पती , खून की फुहार

इतनो लाशों का बोझ लिए
कैसे  खुद को करूँ बर्दाश्त
मेरी रूह तो मर गयी
मेरे बच्चो के साथ
अब बस ये खूनी जिस्म खड़ा है
जलियों वाले बाग़ की तरह
        दरिंदगी हैवानियत  की निशानी  बनकर

गिरा दो मुझे भी की
ये नासूर लिए मैं खड़ा नहीं रह सकता
सदियों तक इतिहास का साक्षी बनकर
मेरा कोई नामोनिशान मत छोड़ना ताकि
भूल से भी वो दरिंदगी किसी के ज़हन में न रहे

गुज़ारिश है की यहाँ कब्रिस्तान
नहीं बगीचा बनाना
नन्हे नन्हे फूलों को फिर से
खिलता देखना है मुझे
मेरी मिटटी को लाल नही
हरा भरा देखना है मुझे
                                                                                                                       ----- डॉ पंकज वर्मा

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