‘तुम और मैं’
मैं जानता हूँ कि मैं
तुम सा नहीं बन सकता
अपने दिल की बात
तुमसे कह नहीं सकता
क्योंकि है फ़ासले बहुत
जो कम नहीं हो सकते
या शायद कम होना ही नहीं चाहते
छोड़ो अब जाने भी दो
क्यों मुझे बोलने पर
मजबूर करते हो
मैं तो पराया हूँ
मेरा क्या है
तुम तो खुद को भी
खुद से दूर करते हो
आँखें खुली है पर
देख नहीं सकते
कान हैं मगर
सुन नहीं सकते
पल पल दूसरे को
गिराने का ही सोचते हो
खुद कितने गिर गये हो
ये समझ नहीं सकते
एक अजीब सा नशा
तुम पर सवार है
दीवाना सा आलम है
अनजानी पतवार है
कहाँ जा रहे हो, पता नहीं
और कहते हो
हमसा ना कोई समझदार है
एक दीमक सी लग गयी
है सोच को तुम्हारी
खोखली है असल में
ये हस्ती तुम्हारी
ये खोखली हस्ती
मन्ज़ूर नहीं मुझे
ये तुम्हारी दुर्गती
स्वीकार नहीं मुझे
जानता हूँ, मैं तुम्हारी तरह
शिखर पे नहीं हूँ
संघर्ष तो करता हूँ
पर सफ़ल नहीं हूँ
पर क्या करूँ कि सोच को
अभी दीमक नहीं लगा है
क्या करूँ कि ज़मीर मेरा
अभी सोने नहीं लगा है
नहीं तो मैं भी तुम्हारी तरह
बेहोश हो, बेखबर सा
निकल पड़ता सफ़लता की
अँधी दौड़ में
जहाँ कदम कदम पर मैं
इन्सानियत को रौंदता
जहाँ मेरा हर कदम
खून से सना होता
नहीं भाई, माफ़ कर दो मुझे
कि इतनी ताकत नहीं मुझमें
कि खुद को ज़िन्दा रखने को
तुम्हें मार दूँ
खुद को आगे बढ़ाने को
इन्सान को पीछे धकेल दूँ
तुम रहो खुश अपने
मुकाम पर कि तुमसे
कोई शिकायत नहीं है
शिकायत खुद से भी नहीं
कम से कम ‘इंसान तो हूँ’
कि ये सही नहीं है
अभी इंसान खोया है
पर सोया नहीं है
ये मत भूलो कि मैं
संघर्ष कर रहा हूँ
जो सब खोये है
उनकी आवाज़ उठा रहा हूँ
कि ये खोखली हस्ती तुम्हारी
कुछ दिनों की मेहमान है
उस सच्चाई का सामना करो
जिसका नाम ‘इंसान’ है
तब ये सरफ़रोश हो, तुम्हें
अपने ‘वजूद’ की याद दिलायेगा
और उस दिन भाई
‘तुममें और मुझमें’
कोई फ़र्क नहीं रह जायेगा
~डॉ. पंकज वर्मा.