Thursday 20 December 2012

Hi doston..................this poem "AZADI" is all about whats happening in India despite so many years of freedom, we are still slave of our ill mentality, desires and greed. So i dont think we actually living a free life when so much of chaos is going on......do check yourself before blaming anyone........kaun kahta hai ki hamein azadi mil gayi hai...........

आज़ादी 






कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है 
न जाने कितने बेजुबान अरमान 
अभी भी कैद है दिलों में 
कि जो उड़ने लगे है वो 
भूल गए है अपने घोसलों को 
पल पल बेबस जलते है आंसू 
तोड़ते है वो मासूम से होंसलों को  

कौन कहता है रोटी से 
भूख मिट जाती है 
मिट जाती गर तो यूँ
सहूलियतें जुटाने को 
ईमान न बेचना पड़ता 
भाई भाई को काटे , जब 
ज़मीन की खातिर 
शारीर को सबल बनाने को 
इंसान न बेचना पड़ता 

कौन कहता है मुझे हक़ है 
जीने का इस आज़ादी में 
कि मेरा हक़ जब दूसरे के 
हक़ के सामने आता है 
तो कुचल देता है वो मुझे 
रास्ते का पत्थर सोचकर 
खुद के तन को ढकता वो 
मेरी बोटी बोटी नोंचकर 

कौन कहता है कि ऐतबार कर 
खुदा पर, जब उसकी बनाई 
दुनिया पर एतबार नहीं होता
धोखे खाती है जिंदगी यूँ हर 
कदम पर कि, खुद के साए पर भी 
इख़्तियार नहीं होता 

कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है 
 आज भी गरीब सोच नहीं पाता                                     दो वक़्त कि रोटी जुटाने के सिवा 
 वो भी न मिले तो , बगावत कर 
 जुर्म के सहारे , खुद कि  हस्ती 
 बनाने कि  कोशिश में वो नादाँ 
                                     

  फिर से अमीरों कि  हिफाज़त की 
    ढाल बन जाता है और फिर 
बेबस गरीब लाचार का खून बहा 
उसकी बस्तियां जलाने को 
मशाल बन जाता है 

कौन कहता है कि  हमें आज़ादी मिल गई  है 
आज भी औरत सर उठा के 
चल नहीं सकती, कि  पर्दा उठा कर 
चले तो उनकी खूंखार आँखों 
पे वासना का पर्दा 
उसके तन को ही नही 
उसके वजूद को भी दफ़न 
कर देता है जीता जीते 
फिर वो शायद कभी न सोचे 
   कि  आज़ादी मिल गई है  



कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई  है 
फितरतें इंसान की न बदली थी 
न बदली है , किसका चुनाव करेंगे
कि सब चोंच मारने झपटने बैठे है 
सत्ता सिर्फ संपत्ति से सने सियारों की है
बहुमत भी संपत्ति का ग़ुलाम है 
जब इंसान ही दो रूपये भाव
सस्ता बिकता है 

कौन कहता है कि  लोग जाग रहे है 
कि  सोया हुआ है सबका ज़मीर 
हर शख्स यहाँ अपनी फितरत का गुलाम है  
कहीं सत्ता का जुनून 
कहीं ज़मीन की जद्दोजहत 
कोई वासना से विवश 
कोई अहंकार से बर्बाद 
भूल गया है इंसा आज 
इंसानियत की फितरत को 

हर इंसा का दायरा जब दुसरे 
इंसा के दायरे से लडेगा तो 
समाज नहीं अखाड़े बनते है 
अकेले सबल होने की चाह में 
घर नहीं शमशान बनते है 

      मैं तुमसे अलग होकर इक खुशनुमा 
      आशियाँ तो बना लूँगा , पर 
शायद तुम्हारे न होने से 
वहीँ घुटकर वेबस लाचार
तन्हा  मैं दम तोड़ दूंगा 
इक दिन इस आस में कि  
शायद कोई सहारा मिले पर 
सहारा तिजोरी दीवारे नहीं 
इंसा होता है , जिसे तो 
 बेच दिया मैंने खुद की 
          बदहवास फितरत की झोलियाँ भरते भरते 

कौन कहता कि आज़ादी मिल गयी है 
कि लड़ते लड़ते यहाँ सब झुलस गए है 
खुद की बनाई बेड़ियों में उलझ गए है 
मैं खुद की अर्थी उठाऊँ या 
तेरी चिता को कन्धा दूँ 
मुर्दों के देश में 
शहर शमशान हो गए है 

             गर आज़ादी के मायने समझते हो 
             तो समझो की जो तुम्हारी आँखों 
             के सामने पनप रहा है 
             वो भी आजाद है 
             गर उसको पनपता नहीं देख सकते
            तो तुम्हारी आज़ादी का ख्वाब बर्बाद है 



समझो कि  आज़ादी रिश्ता है 
खुद के बनाए हर इक बन्दे से 
नफरत न कर धर्म, जाति 
ओहदे के नाम पर 
बचा खुद को इस फंदे से 

समझो की जो वहशियत 
तेरे सीने में दफ़न है 
 वो भड़की है उसके सीने में तो 
इल्ज़ाम  उस पर नहीं कि  
उसकी तृष्णा में भी तपन है 

समझो कि वो बेइमान हुआ 
तेरे ईमान को खरीदकर 
उसकी नीयत में दाग आया 
तेरी नीयत को देखकर 

 समझो कि तड़पता वो भी है 
तेरे घावो को कुरेदकर 
   उसे भी नींद नहीं आती 
 तुझे यूँ मरता देखकर 

                                                   
                                          समझो कि गिरता वो भी है 
   तुझे यूँ पीछे धकेलकर 
     तरसेगा वो भी हँसने को 
तुझे यूँ रोता छोड़कर 

कौन कहता है की हमे आज़ादी मिल गयी है 
हम आज भी गुलाम है 
अपनी बेजान बेनूर बदहवास सी फितरतों के .........


                                                              -   डॉ पंकज वर्मा 
 

Sunday 8 April 2012

My way of living !!! Fitrat............


फ़ितरत’

जानता हूँ ज़िन्दगी सब कुछ नहीं देती
फ़िर भी हर आरज़ू का इन्तज़ार करता हूँ।

जानता हूँ हर शख्स का इस्तेमाल होता है
फ़िर भी हर शख्स से मैं प्यार करता हूँ

जानता हूँ रिश्ते अक्सर बेवफ़ा होते हैं
फ़िर भी हर रिश्ते पर ऐतबार करता हूँ।

जानता हूँ पाक नहीं हैं दुनिया की नज़रें
फ़िर भी हर नज़र का मैं दीदार करता हूँ।

जानता हूँ सफ़र में सब पीछे छूट जाते हैं
फ़िर भी इक हमसफ़र की तलाश करता हूँ।

जानता हूँ ‘ज़िन्दगी’ तेरे लिये मैं कुछ भी नहीं
पर मेरे लिये तू, ‘सबकुछ’ इकरार करता हूँ।

~ डॉ. पंकज वर्मा।

Monday 23 January 2012

HI DOSTON, ITS A REPRESENTATION OF OUR NORMAL LIFE IN WHICH WE ARE USED TO SEE MANY BAD THINGS, WE KNOW THEY ARE WRONG,WE WANT TO CHANGE THAT, BUT, WE COULD'NT, AND WE HAVE MODIFIED OURSELVES TO LIVE WITH THAT PAIN AND SORROW, WE ALL ARE HELPLESS, BUT THATS NOT THE ANSWER , SO WHAT'S THAT!!!






“मैं मजबूर हूँ”

जब कभी कोई सवाल मेरे सामने आया
जब कभी यूँ ही दुनिया का खयाल आया
तब तब दिल से जाने क्यों
ये जवाब आया – ‘मैं मजबूर हूँ’

जब कभी किसी को अत्याचारों से
चकनाचूर पाया, किसी को
मन ही मन बेबस घुटते पाया
सोचा शायद कुछ कर सकूँ
पर इतना सामर्थ्य नहीं मुझमें
इसीलिये दिल ने कहा ‘मैं मजबूर हूँ’

जब कभी बड़ों को छोटे काम करते देखा
खुद को उठाने को दूजे को गिराते देखा
तब उम्र का लिहाज़, हक़ की बात आयी
और दिल ने कहा, ‘मैं मजबूर हूँ’

अमीरों के पैरों तले रौंदा करती है ज़िन्दगी
एहसान के बोझ तले, दब जाती है ज़िन्दगी
पर गरीब की वो हैसियत कहाँ कि
अवाज़ उठाए, लाचार है वो, और ‘मैं मजबूर हूँ’

             

मंज़िल की राह में
जाने कितने बेसहारा मिले
हमदर्द की तलाश में
भटकते कई गुमराह मिले
सोचा किसी का हाथ थामकर
मंज़िल तक पहुँचा दूँ
पर आगे बढ़ना ज़रूरी है
और इसलिये, ‘मैं मजबूर हूँ’

जब कभी प्यार, बाहें फ़ैलाए मिला
अजनबी दुनिया में कोई दिलदार मिला
सोचा थोड़ा जी लूँ, मैं प्यार बनकर
पर रस्मो रिवाज़ आये सामने, जन्ज़ीर बनकर
प्यार करने का हक़ नहीं मुझे
मैंने फ़िर प्यार से कहा ‘मैं मजबूर हूँ’
 
अब मैं भी मूक बनकर
तमाशा देखता हूँ
लाचार आँखों में छुपी
निराशा देखता हूँ
मदद की गुहार करती
फ़ैलती बाहें देखता हूँ
प्यार पाने को तरसती
मासूम आहें देखता हूँ

मजबूर हैं ये सब
ज़िन्दगी इस तरह बिताने को
क्यों मजबूर हैं हम सब
इन्हें यूँ ही देखे जाने को
मज्बूर है हर ख्वाहिश
दब कर मिट जाने को
मजबूर है हर शख्सियत
मिट्टी में मिल जाने को
 


अब यही खयाल
मेरे सीने में नासूर है
है मुझमें भी जज़्बात
पर ‘मैं मजबूर हूँ’
~ डॉ. पंकज वर्मा।

Sunday 15 January 2012

HI DOSTON, ITS A PRESENTATION OF DIFFERENCE BETWEEN RICH AND POOR, '' FAANSLA''. IN THIS 'I'(MAIN) REPRESENTS RICH AND 'TUM' REPRESENTS POOR PEOPLE. CONCLUSION IS, WHATEVER WE ARE, AT THE END WE BOTH ARE UNHAPPY


‘फ़ासला’
मुझमें और तुम में ये
फ़ासला क्यों है?
हम एक से हैं पर
फ़िर ये गिला क्यों है?

है मुझमे जुनून ये
जीने का, पर तुझमें
बेबसी लाचारी का ये
सिलसिला सा क्यों है?

हर कदम पर मेरे
साथ है तू हर पल
पर मैं आगे, तू साये सा
पीछे छुपता क्यों है?

है ये मेरी हस्ती
तुझसे ही वफ़ा पाती
पर मैं इतना मगरूर, तू
इतना मजबूर क्यों है?
 
हम दोनों ही अक्सर
हैं भूख से बिलखते,
पर मेरे हाथ में रोटी,
तेरे हाथ में ये पानी क्यों है?



इक दिन दोनों की निगाहें
धुंधली हो जायेंगी
 पर मेरे पास ये चश्मा
तेरे पास ये लाठी क्यों है?

वक़्त की तेज़ धूप
दोनों को ही छकाती हैं
पर तेरे चेहरे पर
ये झुर्रियां सी क्यों है
 
मैं भी इंसा
तू भी इंसा
पर, तेरे पास ही
ये इंसानियत क्यों है


मैं सबकुछ पाकर
खुश नहीं और तू,
कुछ ना पाकर,
आखिर में ये अन्जाम,
ये मुकाम,
एक सा क्यों है?


~ डॉ. पंकज वर्मा।