आज़ादी
कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है
न जाने कितने बेजुबान अरमान
अभी भी कैद है दिलों में
कि जो उड़ने लगे है वो
भूल गए है अपने घोसलों को
पल पल बेबस जलते है आंसू
तोड़ते है वो मासूम से होंसलों को
कौन कहता है रोटी से
भूख मिट जाती है
मिट जाती गर तो यूँ
सहूलियतें जुटाने को
ईमान न बेचना पड़ता
भाई भाई को काटे , जब
ज़मीन की खातिर
शारीर को सबल बनाने को
इंसान न बेचना पड़ता
कौन कहता है मुझे हक़ है
जीने का इस आज़ादी में
कि मेरा हक़ जब दूसरे के
हक़ के सामने आता है
तो कुचल देता है वो मुझे
रास्ते का पत्थर सोचकर
खुद के तन को ढकता वो
मेरी बोटी बोटी नोंचकर
कौन कहता है कि ऐतबार कर
खुदा पर, जब उसकी बनाई
दुनिया पर एतबार नहीं होता
धोखे खाती है जिंदगी यूँ हर
कदम पर कि, खुद के साए पर भी
इख़्तियार नहीं होता
कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है
वो भी न मिले तो , बगावत कर
जुर्म के सहारे , खुद कि हस्ती
बनाने कि कोशिश में वो नादाँ
फिर से अमीरों कि हिफाज़त की
ढाल बन जाता है और फिर
बेबस गरीब लाचार का खून बहा
उसकी बस्तियां जलाने को
मशाल बन जाता है
कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है
आज भी औरत सर उठा के
चल नहीं सकती, कि पर्दा उठा कर
पे वासना का पर्दा
उसके तन को ही नही
उसके वजूद को भी दफ़न
कर देता है जीता जीते
फिर वो शायद कभी न सोचे
कि आज़ादी मिल गई है
कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है
फितरतें इंसान की न बदली थी
न बदली है , किसका चुनाव करेंगे
कि सब चोंच मारने झपटने बैठे है
सत्ता सिर्फ संपत्ति से सने सियारों की है
बहुमत भी संपत्ति का ग़ुलाम है
जब इंसान ही दो रूपये भाव
सस्ता बिकता है
कौन कहता है कि लोग जाग रहे है
कि सोया हुआ है सबका ज़मीर
हर शख्स यहाँ अपनी फितरत का गुलाम है
कहीं सत्ता का जुनून
कहीं ज़मीन की जद्दोजहत
कोई वासना से विवश
कोई अहंकार से बर्बाद
भूल गया है इंसा आज
इंसानियत की फितरत को
हर इंसा का दायरा जब दुसरे
इंसा के दायरे से लडेगा तो
समाज नहीं अखाड़े बनते है
अकेले सबल होने की चाह में
घर नहीं शमशान बनते है
मैं तुमसे अलग होकर इक खुशनुमा
आशियाँ तो बना लूँगा , पर
शायद तुम्हारे न होने से
वहीँ घुटकर वेबस लाचार
तन्हा मैं दम तोड़ दूंगा
इक दिन इस आस में कि
शायद कोई सहारा मिले पर
सहारा तिजोरी दीवारे नहीं
इंसा होता है , जिसे तो
बेच दिया मैंने खुद की
बदहवास फितरत की झोलियाँ भरते भरते
कौन कहता कि आज़ादी मिल गयी है
कि लड़ते लड़ते यहाँ सब झुलस गए है
खुद की बनाई बेड़ियों में उलझ गए है
मैं खुद की अर्थी उठाऊँ या
तेरी चिता को कन्धा दूँ
मुर्दों के देश में
शहर शमशान हो गए है
तो समझो की जो तुम्हारी आँखों
के सामने पनप रहा है
वो भी आजाद है
गर उसको पनपता नहीं देख सकते
तो तुम्हारी आज़ादी का ख्वाब बर्बाद है
समझो कि आज़ादी रिश्ता है
खुद के बनाए हर इक बन्दे से
नफरत न कर धर्म, जाति
ओहदे के नाम पर
बचा खुद को इस फंदे से
समझो की जो वहशियत
तेरे सीने में दफ़न है
वो भड़की है उसके सीने में तो
इल्ज़ाम उस पर नहीं कि
उसकी तृष्णा में भी तपन है
समझो कि वो बेइमान हुआ
तेरे ईमान को खरीदकर
उसकी नीयत में दाग आया
तेरी नीयत को देखकर
समझो कि तड़पता वो भी है
तेरे घावो को कुरेदकर
उसे भी नींद नहीं आती
तुझे यूँ मरता देखकर
समझो कि गिरता वो भी है
तरसेगा वो भी हँसने को
तुझे यूँ रोता छोड़कर
कौन कहता है की हमे आज़ादी मिल गयी है
हम आज भी गुलाम है
अपनी बेजान बेनूर बदहवास सी फितरतों के .........
- डॉ पंकज वर्मा
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