“मैं मजबूर हूँ”
जब कभी कोई सवाल मेरे सामने आया
जब कभी यूँ ही दुनिया का खयाल आया
तब तब दिल से जाने क्यों
ये जवाब आया – ‘मैं मजबूर हूँ’
जब कभी किसी को अत्याचारों से
चकनाचूर पाया, किसी को
मन ही मन बेबस घुटते पाया
सोचा शायद कुछ कर सकूँ
पर इतना सामर्थ्य नहीं मुझमें
इसीलिये दिल ने कहा ‘मैं मजबूर हूँ’
जब कभी बड़ों को छोटे काम करते देखा
खुद को उठाने को दूजे को गिराते देखा
तब उम्र का लिहाज़, हक़ की बात आयी
और दिल ने कहा, ‘मैं मजबूर हूँ’
एहसान के बोझ तले, दब जाती है ज़िन्दगी
पर गरीब की वो हैसियत कहाँ कि
अवाज़ उठाए, लाचार है वो, और ‘मैं मजबूर हूँ’
जाने कितने बेसहारा मिले
हमदर्द की तलाश में
भटकते कई गुमराह मिले
सोचा किसी का हाथ थामकर
मंज़िल तक पहुँचा दूँ
पर आगे बढ़ना ज़रूरी है
और इसलिये, ‘मैं मजबूर हूँ’
जब कभी प्यार, बाहें फ़ैलाए मिला
अजनबी दुनिया में कोई दिलदार मिला
सोचा थोड़ा जी लूँ, मैं प्यार बनकर
पर रस्मो रिवाज़ आये सामने, जन्ज़ीर बनकर
प्यार करने का हक़ नहीं मुझे
मैंने फ़िर प्यार से कहा ‘मैं मजबूर हूँ’
अब मैं भी मूक बनकर
तमाशा देखता हूँ
लाचार आँखों में छुपी
निराशा देखता हूँ
मदद की गुहार करती
फ़ैलती बाहें देखता हूँ
प्यार पाने को तरसती
मासूम आहें देखता हूँ
मजबूर हैं ये सब
ज़िन्दगी इस तरह बिताने को
क्यों मजबूर हैं हम सब
इन्हें यूँ ही देखे जाने को
मज्बूर है हर ख्वाहिश
दब कर मिट जाने को
मजबूर है हर शख्सियत
मिट्टी में मिल जाने को
अब यही खयाल
मेरे सीने में नासूर है
है मुझमें भी जज़्बात
पर ‘मैं मजबूर हूँ’
~ डॉ. पंकज वर्मा।