"वो जो मर्द कहते हैं खुदको"
वो जो मर्द कहते हैं खुदको ,
औरत की कोख से जन्मे हैं ।
वो जो मर्द कहते हैं खुदको
आज जानवरों से भी निकम्मे हैं ।
दफन हो जाती है ज़िंदगी इक इक
सपनो को दामन में पिरोते पिरोते ,
वो जो मर्द कहते हैं खुदको ,
दामन को दामिनी बना सड़क पे छोड़ते ।
बेटों का जीवन सवारतें हैं ,
वो जो मर्द कहते हैं खुदको ,
किसी माँ की बेटी की खाल उतारते हैं ।
उम्र भर रक्षा का वादा कर
करोड़ों हाथ राखी बंधवाते हैं ।
वो जो मर्द कहते हैं खुदको
उन्ही हाथों से बहनों को
चल नहीं सकते
एक कदम भी
औरत के सहारे के बिना
वो जो मर्द कहते हैं खुदको
उसे बेबस बेसहारा बनाते हैं ।
नारी से अभिशापित हो जाएंगे ,
वो जो मर्द कहते हैं खुदको
खुद अपनी ही अर्थी उठाएंगे ।
शर्म हया के पर्दे त्याग जब,
वो जो मर्द कहते हैं खुदको,
उनकी
मर्दानगी ख़ाक में मिल जाएगी।
इज़ज़त गर चाहते हो तो
इज़ज़त सम्मान देना सीखो ,
वो जो मर्द कहते हैं खुदको
नारी को स्वाभिमान देना सीखो।
.... डॉ पंकज वर्मा