" आतंक और इंसा "
कुचलकर यूँ इंसा को क्या हासिल कर लोगे,
किसे दोजख दोगे,
किसको जन्नत दोगे।
अब धमाकों से जी नहीं भरता
कत्ल-ए-आम होता है बेरहम ,
बदन छलनी छलनी हैं
दिल जैसे गए हैं सहम ।
किसको जन्नत दोगे।
अब धमाकों से जी नहीं भरता
कत्ल-ए-आम होता है बेरहम ,
बदन छलनी छलनी हैं
दिल जैसे गए हैं सहम ।
डर से भी बढ़कर कुछ है
जो घर कर गया है घरों में ,
मेरा आशियाँ न महफूज़ है ,
न मस्जिद में, न मंदिरों में।
जो घर कर गया है घरों में ,
मेरा आशियाँ न महफूज़ है ,
न मस्जिद में, न मंदिरों में।
आतंक का ये चेहरा
बेनकाब होकर भी
बेहिसाब जुटा है
दरिंदगी फ़ैलाने में,
सत्ताएँ क्यों चुपचाप हैं
थोड़ा पैसा देकर, इंसान
की कीमत चुकाने में ।
बेहिसाब जुटा है
दरिंदगी फ़ैलाने में,
सत्ताएँ क्यों चुपचाप हैं
थोड़ा पैसा देकर, इंसान
की कीमत चुकाने में ।
दम घुटता है कैद मन की दीवारों में,
कैसे कन्धा दूँ
अपनों की लाश को
कैसे आसूं पोछु,
सिसकती हुई मज़ारों में।
ये सिलसिला न जाने कब थमेगा,
पता नहीं यूँ कौनसा मकसद मिलेगा ।
आज़ादी गर छीनोगे जीने की हमसे
न ज़मीं नसीब होगी,
न आसमाँ ही मिलेगा।।
....…......................डॉ पंकज वर्मा
कैसे कन्धा दूँ
अपनों की लाश को
कैसे आसूं पोछु,
सिसकती हुई मज़ारों में।
ये सिलसिला न जाने कब थमेगा,
पता नहीं यूँ कौनसा मकसद मिलेगा ।
आज़ादी गर छीनोगे जीने की हमसे
न ज़मीं नसीब होगी,
न आसमाँ ही मिलेगा।।
....…......................डॉ पंकज वर्मा