Friday, 20 December 2013

आजकल बदलाव का दौर है , हर शक्श बदलाव चाहता है , पर बदलाव बाहरी तौर पर नहीं व्यक्तिगत स्तर पर होना चाहिए , एक आंतरिक क्रांति होनी चाहिए जो हमें सही सोच दे , नैतिकता दे , बेबुनियाद रस्मों रिवाज़ों, परम्पराओं को ख़त्म कर दे। इसी सोच और हमारे अंतर्मन के सही और गलत के विवाद पर आधारित है ये कविता ……


"मुसाफिर "




वक़्त बदल रहा है , लोग बद रहे हैं
रास्ते बदल रहै हैं , मंज़िलें बदल रही हैं
बदल गया हूँ मैं , नजरिया बदल गया हैं
सोच बदल गयी है, माहौल बदल गया है


जहाँ इक प्यारी सरगम
मन जो झकझोर देती थी
अब हज़ारों गीत मिलकर भी
मन के खालीपन को भर नहीं पाते

किसपे ऐतबार करूँ दुनिया के मेले में
लोगों कि आदत है
इस्तेमाल करते हैं , छोड़ देते हैं
कोई चीज़ अपनी हो तो ठीक है
दूजे कि हो तो तोड़ देते हैं
संपन्न हो तो सब खुशनुमा हसीन  हैं
ग़म के साये में मुँह मोड़ लेते हैं ,
कब तक सहूँ ईर्ष्या कि कड़वाहट को ,
अब तो आंसू भी साथ छोड़ देते हैं ।

यहाँ हर शख्स बदलाव चाहता है ,
लोगो में, मौसम में ,
दुनिया में , माहौल  में
भूल जाता है , गर बदलना है तो
अपने अक्स में छिपे, उस मन को बदलो
जो दुनिया को बदलने कि तमन्ना रखता है ।  

भूल जाता है,  दूसरे के पास भी मन है जो
तुम्हे बदलने कि तमन्ना रखता है
माना आज तुम बेसहारा नहीं हो, लाचार  नहीं हो
 किसी के अत्याचारो से चकनाचूर नहीं हो

 पर कल किसने देखा है
कल क्या बदल सकोगे तुम ?
बदल पाओगे लोगो कि अट्टाहस भरी नज़रो को ?
कड़वी ज़ुबान को ? तुम्हे रोंदते पैरों को ?
नहीं , नहीं बदल सकते तुम दुनिया के उसूलो को

जो गरीब है, लाचार  है, वही पिसता  है ,
 वही सहता है, वही कराहता है
वही तरसता है, वही तड़पता है
गरीब नहीं बदलते,
ना ही बदलते हैं वो आसुओं के खरीददार
जो इतिहास से लेकर भविष्य तक
यूहीं  शोषण करते  हैं  


गर चाहूं  मैं इसको बदलना
मिटटी का क़र्ज़ चुकाना
तो लोगो कि गालिया सामने जाती हैं 
क्यों ?

क्योकि उसूल नहीं बदलते ,
परंपरा नहीं बदलती ,
सोच नहीं बदलती ।
क्या बदल पाऊंगा मैं ?
लोगो कि सोच को
जो सिर्फ स्वार्थ सोचती है
ईर्ष्या को नफरत को जो सिर्फ नाश सोचती है ,
द्वेष को क्रोध को जो लोगो को अँधा बना देती है

हाँ , यही है इस अंधी दुनिया कि चाहत !!!
शायद मेरी आँखें खुली है जो
देख सकती  है वो सब कुछ जो
विकारों कि पट्टी से बंद नज़रें
देख नहीं पाती

बदलना चाहते है मुझे भी
ताकि मैं भी अँधा हो जाऊं
बहरा हो जाऊं , गूंगा हो जाऊं 
ताकि फिर कुछ  बदलने
का सामर्थ्य मुझमे रहे

पर नहीं, नहीं बदल पाओगे मुझे तुम
कैसे बदलोगे तुम , मेरे संस्कारों को ?
कैसे बदलोगे साँसों के तारों को ?
जिनमे प्रेम, दया , करुणा का
हर पल गुंजन रहता है

शायद ये मानसिक संघर्ष
यूँ ही ज़ारी रहेगा ,
पवित्रता और मलीनता का ,
युद्ध चलता रहेगा

देखना है कल क्या  बदलता है ?
राही बदलता है या कारवां बदलता है
पर जानता  हूँ,  मुसाफिर हूँ ,
लोग बदलेंगे, सोच नहीं बदलेगी
पल पल तानें देती चोंच नहीं बदलेगी
एक ही आस है ……
मुस्कुराकर दुआ करो कि मुसाफिर का
                                      होंसला टूटे ….
                   मंज़िल बिखरे ….
                   मुसाफिर बदले………


                                                
                             - डॉ पंकज वर्मा

Wednesday, 27 November 2013

"JEEVAN SATYA KI TALASH": परिंदा प्यार बनकर ज़िंदा हो तो ज़िंदगी है,  तलाश ब...

"JEEVAN SATYA KI TALASH":
परिंदा
प्यार बनकर ज़िंदा हो तो ज़िंदगी है,  तलाश ब...
: परिंदा   प्यार बनकर ज़िंदा हो तो ज़िंदगी है,   तलाश बनकर परिंदा हो तो ज़िंदगी है   हो ज़िंदादिल जूनून ,मकसद के वास्ते  फड़फड़ाते, ...

Tuesday, 26 November 2013


परिंदा 

प्यार बनकर ज़िंदा हो तो ज़िंदगी है, 
 तलाश बनकर परिंदा हो तो ज़िंदगी है 
 हो ज़िंदादिल जूनून ,मकसद के वास्ते 
फड़फड़ाते, आज़ाद बाशिंदा हो तो ज़िंदगी है
                                                         -डॉ. पंकज वर्मा. 

Thursday, 15 August 2013

"आज़ादी के साल "




है आज़ाद हुए हमें गुज़रे कई साल,
खोया है वजूद हमारा साल दर साल

है इंसा आज भी हिन्दू-  मुसलमान, उत्तर और दक्षिण का
जानवरों से बदतर है बेगुनियद ग़ुलामी का हाल..........









है भारत जहाँ , वहां कोई भी  भारतीय नहीं है,
बुना  है सबके दिलों में , बेईमानी का जाल..........


आज़ाद करो खुदको खुदगर्जी की सलाखों से
वरना चंद पन्नों में दफ्न हो जायेंगे ये आज़ादी के साल ..............

Thursday, 20 December 2012

Hi doston..................this poem "AZADI" is all about whats happening in India despite so many years of freedom, we are still slave of our ill mentality, desires and greed. So i dont think we actually living a free life when so much of chaos is going on......do check yourself before blaming anyone........kaun kahta hai ki hamein azadi mil gayi hai...........

आज़ादी 






कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है 
न जाने कितने बेजुबान अरमान 
अभी भी कैद है दिलों में 
कि जो उड़ने लगे है वो 
भूल गए है अपने घोसलों को 
पल पल बेबस जलते है आंसू 
तोड़ते है वो मासूम से होंसलों को  

कौन कहता है रोटी से 
भूख मिट जाती है 
मिट जाती गर तो यूँ
सहूलियतें जुटाने को 
ईमान न बेचना पड़ता 
भाई भाई को काटे , जब 
ज़मीन की खातिर 
शारीर को सबल बनाने को 
इंसान न बेचना पड़ता 

कौन कहता है मुझे हक़ है 
जीने का इस आज़ादी में 
कि मेरा हक़ जब दूसरे के 
हक़ के सामने आता है 
तो कुचल देता है वो मुझे 
रास्ते का पत्थर सोचकर 
खुद के तन को ढकता वो 
मेरी बोटी बोटी नोंचकर 

कौन कहता है कि ऐतबार कर 
खुदा पर, जब उसकी बनाई 
दुनिया पर एतबार नहीं होता
धोखे खाती है जिंदगी यूँ हर 
कदम पर कि, खुद के साए पर भी 
इख़्तियार नहीं होता 

कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई है 
 आज भी गरीब सोच नहीं पाता                                     दो वक़्त कि रोटी जुटाने के सिवा 
 वो भी न मिले तो , बगावत कर 
 जुर्म के सहारे , खुद कि  हस्ती 
 बनाने कि  कोशिश में वो नादाँ 
                                     

  फिर से अमीरों कि  हिफाज़त की 
    ढाल बन जाता है और फिर 
बेबस गरीब लाचार का खून बहा 
उसकी बस्तियां जलाने को 
मशाल बन जाता है 

कौन कहता है कि  हमें आज़ादी मिल गई  है 
आज भी औरत सर उठा के 
चल नहीं सकती, कि  पर्दा उठा कर 
चले तो उनकी खूंखार आँखों 
पे वासना का पर्दा 
उसके तन को ही नही 
उसके वजूद को भी दफ़न 
कर देता है जीता जीते 
फिर वो शायद कभी न सोचे 
   कि  आज़ादी मिल गई है  



कौन कहता है कि हमें आज़ादी मिल गई  है 
फितरतें इंसान की न बदली थी 
न बदली है , किसका चुनाव करेंगे
कि सब चोंच मारने झपटने बैठे है 
सत्ता सिर्फ संपत्ति से सने सियारों की है
बहुमत भी संपत्ति का ग़ुलाम है 
जब इंसान ही दो रूपये भाव
सस्ता बिकता है 

कौन कहता है कि  लोग जाग रहे है 
कि  सोया हुआ है सबका ज़मीर 
हर शख्स यहाँ अपनी फितरत का गुलाम है  
कहीं सत्ता का जुनून 
कहीं ज़मीन की जद्दोजहत 
कोई वासना से विवश 
कोई अहंकार से बर्बाद 
भूल गया है इंसा आज 
इंसानियत की फितरत को 

हर इंसा का दायरा जब दुसरे 
इंसा के दायरे से लडेगा तो 
समाज नहीं अखाड़े बनते है 
अकेले सबल होने की चाह में 
घर नहीं शमशान बनते है 

      मैं तुमसे अलग होकर इक खुशनुमा 
      आशियाँ तो बना लूँगा , पर 
शायद तुम्हारे न होने से 
वहीँ घुटकर वेबस लाचार
तन्हा  मैं दम तोड़ दूंगा 
इक दिन इस आस में कि  
शायद कोई सहारा मिले पर 
सहारा तिजोरी दीवारे नहीं 
इंसा होता है , जिसे तो 
 बेच दिया मैंने खुद की 
          बदहवास फितरत की झोलियाँ भरते भरते 

कौन कहता कि आज़ादी मिल गयी है 
कि लड़ते लड़ते यहाँ सब झुलस गए है 
खुद की बनाई बेड़ियों में उलझ गए है 
मैं खुद की अर्थी उठाऊँ या 
तेरी चिता को कन्धा दूँ 
मुर्दों के देश में 
शहर शमशान हो गए है 

             गर आज़ादी के मायने समझते हो 
             तो समझो की जो तुम्हारी आँखों 
             के सामने पनप रहा है 
             वो भी आजाद है 
             गर उसको पनपता नहीं देख सकते
            तो तुम्हारी आज़ादी का ख्वाब बर्बाद है 



समझो कि  आज़ादी रिश्ता है 
खुद के बनाए हर इक बन्दे से 
नफरत न कर धर्म, जाति 
ओहदे के नाम पर 
बचा खुद को इस फंदे से 

समझो की जो वहशियत 
तेरे सीने में दफ़न है 
 वो भड़की है उसके सीने में तो 
इल्ज़ाम  उस पर नहीं कि  
उसकी तृष्णा में भी तपन है 

समझो कि वो बेइमान हुआ 
तेरे ईमान को खरीदकर 
उसकी नीयत में दाग आया 
तेरी नीयत को देखकर 

 समझो कि तड़पता वो भी है 
तेरे घावो को कुरेदकर 
   उसे भी नींद नहीं आती 
 तुझे यूँ मरता देखकर 

                                                   
                                          समझो कि गिरता वो भी है 
   तुझे यूँ पीछे धकेलकर 
     तरसेगा वो भी हँसने को 
तुझे यूँ रोता छोड़कर 

कौन कहता है की हमे आज़ादी मिल गयी है 
हम आज भी गुलाम है 
अपनी बेजान बेनूर बदहवास सी फितरतों के .........


                                                              -   डॉ पंकज वर्मा