"नज़र "
तेरी नज़रों के नूर को
नज़र करने से डरता हूँ। ...
डरता हूँ .........
कहीं झुक के कल कल
बह न जाए,
ये झील सी नज़रें
हया के नीर से ।
डरता हूँ ........
चंदा की चांदनी के
आगोश में समाकर,
जैसे सागर, होश खो
अपनी सीमाएं भूल जाता है ।
कहीं मैं भी..........
तेरी आँखों के उजाले के
आगोश में समाकर ,
अपनी मर्यादा भूल न जाऊं ।
डरता हूँ .......
तेरी पलकों की चिलमन
के घने साये में
कहीं मैं खुद ही नज़रबंद न हो जाऊं ।
कहीं भूल न जाऊं ,
कि तेरी आँखों से अलग इक दुनिया भी है ,
जिसका मैं हिस्सा हूँ ।
कभी पतझड़ कभी सावन सा
जीवन का किस्सा हूँ ।
नादाँ सा रही हूँ,
मंज़िल अभी दूर हैं,
खुद ही भटक जाऊं राह
तो मंज़िल का क्या कसूर है ।
ऐ नूर .....
ज़रा, नैनो का नूर दे दे ,
तेरे नूर को इन नैनो का नूर बना लूंगा ।
जब जब नज़रें झुकेंगी,
तुझे नज़र कर लूंगा .....
तुझे नज़र कर लूंगा ......
तुझे नज़र कर लूंगा.....
-डॉ पंकज वर्मा
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